आज़ाद थी सोच, आज़ाद था मन और आज़ाद थे हम,
न तपती धुप में पड़ते उन नंगे पाँव का और न किसी छाँव का हमें था गम,
नादानियों और मासूमियत की उस उम्र में हर तरह से आज़ाद थे हम,
देखी नहीं थी कभी किसी के पाँव में बेडियाँ फिर भी आज़ादी की कीमत को समझते थे हम,
क्यूंकि शरारतों की उस उम्र में भी थोड़े से समझदार थे हम,
खुल जाये रास्ते में जूते तो कैसे पहनते है उसे इतने समझदार भी नहीं थे हम,
पर बड़े होकर देश की रक्षा करेंगे, ये तय कर चुके थे हम,
बचपन से जिस आज़ादी की कीमत को पहचानते थे हम,
आज उसी को बचाने के लिए मर मिटे हैं हम,
लिपटा है शरीर तिरंगे में और मुस्कुरा रहे हैं हम,
क्यूंकि शरारतों की उस उम्र से ही थोड़े समझदार से थे हम.....
दया राणा
गांव –औच ,डाकघर –लाह्डू, तहसील – जयसिंह पुर, जिला – काँगड़ा , हिमाचल प्रदेश
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