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मारे इर्द-गिर्द लाखों घटनाएँ रोज घटती हैं और अगर हम उनको किसी के साथ न बांटें तो ये हमारे अंदर घुटन पैदा करती हैं ,आज मैनें यह सोचा की
क्यों न अपने अंदर पैदा होने बाली इस घुटन को
बाहर निकालूं और कुछ लिखूं ताकि आने बाला कल ये जान सके की सच क्या है ................

शनिवार, 4 अक्तूबर 2014

कुछ न कुछ तो फिर भी रह ही जायेगा ................................


दफ़न हैं हज़ारों खुशियाँ इस शहर में अब भी,  
दफ़न हैं हज़ारों खुशियां अब भी इस शहर में..
गली में कभी फुर्सत मिले तो जाकर देखो ,
  
आएगा तुम्हें भी याद अपना बचपन ,
यादों से जरा  पर्दा हटाकर तो देखो ,

खुशियाँ ढूँढने के लिए तुम क्यूँ यहाँ – बहां भटकते हो,
यह सब दिखावे के रिश्ते हैं छोड़ देंगे मुशीबत में,

वक्त मिला है तो अपनों के साथ गुज़ार के  तो देखो ,
सकूं मिलेगा दर्द में भी तुम्हें, बस थोडा सा दर्द बाँट के तो देखो,

समेटते-समेटते जिंदगी युहीं गुजर जायेगी ,
लेकिन कुछ चीज़ें फिर भी छूट जायेंगे ,

माना खुवाहिशें ज़रूरी  हैं जीने के लिए, "प्रदीप"
मगर कुछ खुवाहिशें फिर भी अधूरी रह जाएँगी,

यह सच है की जिंदगी मिली है जीने के लिए,
मगर इस  जिंदगी  का क्या  एक  दिन यह  भी रूठ जायेगी........................
                                         प्रदीप सिंह राणा, काँगड़ा हिमाचल प्रदेश  

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