हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं ........................
उलझ गई अब जिन्दगी रिश्तों में ,
मैं खली सोच लेकर कहाँ जाऊं ,
बनाऊं अगर पुतले मिटटी के हजारों ,
पर उनमें जान कहाँ से लाऊं ,
यह शहर तो अब मुर्दों का ठहरा ,
डर लगता है जीने में मुझको,
मैं जान देने कहाँ जाऊं ,
यहाँ रिश्तों का कोई नाम नहीं है,
कौन किसका क्या लगता है ,
यह पूछने मैं कहाँ जाऊं ,
अब दिल में दर्द नहीं होता ,
अगर खराब हो भी जाए पुर्जा ,
तो शरीर बर्बाद नहीं होता ,
हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं ,
अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूल चुके हैं ,
अब हमें प्यार नहीं होता ,
क्योंकि हम दरिन्दे औरे हब्सी बन चुके हैं ,
हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं
हाँ यह सच है की अब हम मशीने बन चुके हैं .....................
प्रदीप सिंह (एच . पी . यू . - समर हिल -शिमला , हि. प्र .)
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