All Rights are Reserved


मारे इर्द-गिर्द लाखों घटनाएँ रोज घटती हैं और अगर हम उनको किसी के साथ न बांटें तो ये हमारे अंदर घुटन पैदा करती हैं ,आज मैनें यह सोचा की
क्यों न अपने अंदर पैदा होने बाली इस घुटन को
बाहर निकालूं और कुछ लिखूं ताकि आने बाला कल ये जान सके की सच क्या है ................

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं ........................

हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं ........................
उलझ गई अब जिन्दगी रिश्तों में ,
   मैं खली सोच लेकर कहाँ जाऊं ,
      बनाऊं अगर पुतले मिटटी के हजारों ,
पर उनमें जान कहाँ से लाऊं ,
     यह शहर तो अब मुर्दों का ठहरा ,
          डर लगता है जीने में मुझको,
                  मैं जान देने कहाँ जाऊं ,
     यहाँ रिश्तों का कोई नाम नहीं है,
          कौन किसका क्या लगता है ,
   यह पूछने  मैं कहाँ  जाऊं ,
                 अब दिल में दर्द नहीं होता ,
   अगर खराब हो भी जाए पुर्जा ,
              तो शरीर बर्बाद नहीं होता ,
                   हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं ,
अपनी सभ्यता और संस्कृति को भूल चुके हैं ,
                अब हमें प्यार नहीं होता ,
      क्योंकि  हम दरिन्दे औरे हब्सी बन चुके हैं ,
             हाँ अब हम मशीनें बन चुके हैं 
                हाँ यह सच है की अब हम मशीने बन चुके हैं .....................




प्रदीप सिंह   (एच . पी . यू . - समर हिल -शिमला , हि. प्र .)

                                                               


कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें